उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने अपनी पहली ही कैबिनेट मीटिंग में अपने मैनिफेस्टो का एक बड़ा अहम वादा पूरा कर दिया था. प्रदेश के किसानों का कुल 36 हज़ार 359 करोड़ रुपए का कर्ज़ माफ कर दिया गया है. बात किसानों से जुड़ी हुई है तो सबने इस कदम का स्वागत किया, विपक्षी पार्टियों ने भी तारीफ की. लेकिन गुरुवार को इस फैसले पर पहली नकारात्मक प्रतिक्रिया आई रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल की ओर से.
उर्जित ने मॉनीटरी पॉलिसी को लेकर हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि इस तरह लोन माफ कर देने से देश में ‘ऑनेस्ट क्रेडिट कल्चर’ को नुकसान पहुंचता है. मतलब ईमानदारी से लोन चुकाने वालों को ठगा हुआ महसूस होता है और लोन न चुकाने वाले लोगों को ऐसा करते रहने का कारण मिल जाता है. ये सही नहीं है और ऐसे कदमों से देश की अर्थव्यवस्था पर फर्क पड़ सकता है.
लोन माफी योगी कैबिनेट का पहला फैसला था.
उर्जित पटेल भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर हैं. देश की अर्थव्यवस्था से जुड़े सारे बड़े फैसलों में उनका दखल होता है. और उनका बयान देश में सबसे ज़्यादा लोगों को रोज़गार देने वाले सेक्टर यानी खेती-बाड़ी से जुड़ा था. इस तरह ये बयान बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. इस पर बात होनी चाहिए. लेकिन किसी भी तर्क-वितर्क से पहले एक बात साफ कर ली जाए. एक बैंकर की हैसियत से उर्जित पटेल का बयान अपनी जगह ठीक है. वे चाहते हैं कि लोग बैंक से पैसा लें तो वापस भी करें. इसमें कुछ गलत नहीं है.
लेकिन कई बार इस बात को खींचतान कर वहां ले जाया जाता है जहां से किसानों को मिलने वाली हर छूट (चाहे वो सब्सिडी हो या लोन माफी) पर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है. बयान उर्जित का है, लेकिन कई लोग उनसे इत्तेफाक रखते हैं. इसीलिए हम कुछ तर्क पेश कर रहे हैं जिससे उर्जित के बयान को एक नई रोशनी में देखा जा सकेः
# लोन माफी का आंकड़ा भले 36 हज़ार 359 करोड़ जितना भारी भरकम हो, इस बात पर ध्यान ज़रूर दिया जाए कि ये फायदा 94 लाख किसानों में बंटा हुआ है. तो एक बहुत बड़ी संख्या में लोगों को राहत मिली है. एक किसान के औसतन 38 हज़ार 680 रुपए माफ हुए. ये बड़ी रकम कतई नहीं कही जा सकती. इस तरह ये एक औसत कॉर्पोरेट बेलआउट से अलग है. वहां फायदा कर्मचारियों में कम बंटता है, कंपनी की बैलेंस शीट में ज़्यादा दिखता है.
# 94 करोड़ किसानों के आंकड़े से ये न समझा जाए कि किसान आदतन कर्ज़ नहीं चुकाते. खेती के लिए जितने लोग कर्ज़ लेते हैं, उनमें से महज़ 8 फीसदी डिफॉल्टर निकलते हैं. जान लें कि कॉर्पोरेट लोन के मामले में ये आंकड़ा 12 फीसदी तक जाता है. यही नहीं, ज़्यादातर बड़े कर्ज़ कॉर्पोरेट्स के लिए ही होते हैं.
तमिलनाडु के किसान अपना कर्ज माफ कराने के लिए दिल्ली में प्रदर्शन करते हुए.
# माफ हुए लोन में सिर्फ 15 फीसदी ऐसा था जो एनपीए में आता था. इसका मतलब 85 फीसदी लोन बैंकों को चुकाया जा रहा था. 94 लाख में से महज़ 7 लाख किसान ऐसे थे जो लोन नहीं चुका रहे थे. इन पर 5,630 करोड़ बकाया था.
# एक बात ये भी है कि किसानों को असल में जितनी छूट मिलती है, उसका प्रचार उस से ज़्यादा होता है. सरकारें किसानों के लोन माफ करते वक्त खूब शोर मचाती हैं. क्योंकि इससे उन्हें चुनावी फायदा पहुंचता है. इसके ठीक उलट बड़े उद्योगों का कर्ज़ माफ करने का काम बड़े चुप-चाप होता है. हमें तब ही पता चलता है जब कोई अखबार कहीं से खबर खोद लाता है. रिलायंस को 2019 तक सरकारी बैंकों के 16000 करोड़ चुकाने थे. अब उसे 2030-31 तक की मोहलत मिल गई है. बताएं, आपको पता था?
कृषि आज भी सबसे ज़्यादा लोगों को रोज़गार देता है.
# एक तर्क ये भी दिया जाता है कि किसानों की कर्ज़ माफी उदार अर्थव्यवस्था (लिबरल इकॉनोमी) के सिद्धांतों के खिलाफ है. लेकिन दुनिया के सारे विकसित देश खेती पर तगड़ी सब्सिडी देते हैं. उदार अर्थव्यवस्था के ठेकेदार अमेरिका ने सिर्फ 2016 में इस सेक्टर को 1 लाख 72 हज़ार 500 करोड़ की सब्सिडी दी थी. लोन माफी और सब्सिडी अलग-अलग होते हैं. लेकिन इनका असर एक सा ही होता है. ये दोनों किसानों को मुश्किल से उबारते हैं.
# ‘लोन डिफॉल्टर’ कहते समय एक किसान और एक उद्योगपति एक ही शब्द में समा जाते हैं. लेकिन आसानी से समझा जा सकता है कि ये दोनों डिफॉल्टर काफी अलग ज़िंदगियां जीते हैं. एक लोन डिफॉल्टर किसान की हालत में कमोबेश कोई बदलाव नहीं होता. लेकिन बैंकों का पैसा डकारने के बाद मज़े करते हुए कॉर्पोरेट जगत के (पूर्व) दिग्गज हम सबने देखे हैं.
यहां कहना ये नहीं कि देश में एक ऐसा माहौल तैयार हो जाए जहां राजनेता टैक्स के पैसे से बंदर-बांट करके वोट बटोरें और न ये कि किसानों का लोन न लौटाना सही है. हम सिर्फ इस बात पर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि किसानों की कर्ज़ माफी के बारे में जल्दबाज़ी में धारणा
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